मंगलवार, 26 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (चतुर्थ अध्याय)

अष्टावक्र गीता
चतुर्थ अध्याय

जनक उवाच ||
हन्तात्मज्ञानस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया |
न हि संसारवाहीकैर्मूढैः सह समानता ||४- १||

(अष्टावक्र कहते हैं -
स्वयं को जानने वाला बुद्धिमान व्यक्ति इस संसार की परिस्थितियों को खेल की तरह लेता है, उसकी सांसारिक परिस्थितियों का बोझ (दबाव) लेने वाले मोहित व्यक्ति के साथ बिलकुल भी समानता नहीं है॥१॥)

यत् पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः |
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ||४- २||

(जिस पद की इन्द्र आदि सभी देवता इच्छा रखते हैं, उस पद में स्थित होकर भी योगी हर्ष नहीं करता है॥२॥)

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते |
न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि सङ्गतिः ||४- ३||

(उस (ब्रह्म) को जानने वाले के अन्तःकरण से पुण्य और पाप का स्पर्श नहीं होता है जिस प्रकार आकाश में दिखने वाले धुएँ से आकाश का संयोग नहीं होता है ॥३॥)

आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना |
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः ||४- ४||

(जिस महापुरुष ने स्वयं को ही इस समस्त जगत के रूप में जान लिया है, उसके स्वेच्छा से वर्तमान में रहने को रोकने की सामर्थ्य किसमें है॥४॥)

आब्रह्मस्तंबपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे |
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने ||४- ५||

(ब्रह्मा से तृण तक, चारों प्रकार के प्राणियों में केवल आत्मज्ञानी ही इच्छा और अनिच्छा का परित्याग करने में समर्थ है॥५॥)

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम् |
यद् वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित् ||४- ६||

(आत्मा को एक और जगत का ईश्वर कोई कोई ही जानता है, जो ऐसा जान जाता है उसको किसी से भी किसी प्रकार का भय नहीं है ॥६॥)

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