शनिवार, 30 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (षष्ठ अध्याय)

|| अष्टावक्र गीता ||
षष्ठ अध्याय

जनक उवाच -
आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत् |
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः ||६- १||

(राजा जनक कहते हैं - आकाश के समान मैं अनंत हूँ और यह जगत घड़े के समान महत्त्वहीन है, यह ज्ञान है। इसका न त्याग करना है और न ग्रहण, बस इसके साथ एकरूप होना है॥१॥)

महोदधिरिवाहं स प्रपंचो वीचिसऽन्निभः |
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः ||६- २||

(मैं महासागर के समान हूँ और यह दृश्यमान संसार लहरों के समान। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है॥२॥)

अहं स शुक्तिसङ्काशो रूप्यवद् विश्वकल्पना |
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः ||६- ३||

(यह विश्व मुझमें वैसे ही कल्पित है जैसे कि सीप में चाँदी। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है॥३॥ )

अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि |
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः ||६- ४||

(मैं समस्त प्राणियों में हूँ जैसे सभी प्राणी मुझमें हैं। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है॥४॥)

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (पंचम अध्याय)

अष्टावक्र गीता
पंचम अध्याय

अष्टावक्र उवाच -
न ते संगोऽस्ति केनापि किं शुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि |
संघातविलयं कुर्वन्नेवमेव लयं व्रज ||५- १||

(अष्टावक्र कहते हैं -
तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥१॥)

उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्बुदः |
इति ज्ञात्वैकमात्मानं एवमेव लयं व्रज ||५- २||

(जिस प्रकार समुद्र से बुलबुले उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार विश्व एक आत्मा से ही उत्पन्न होता है। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥२॥)

प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद् विश्वं नास्त्यमले त्वयि |
रज्जुसर्प इव व्यक्तं एवमेव लयं व्रज ||५- ३||

(यद्यपि यह विश्व आँखों से दिखाई देता है परन्तु अवास्तविक है। विशुद्ध तुम में इस विश्व का अस्तित्व उसी प्रकार नहीं है जिस प्रकार कल्पित सर्प का रस्सी में। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥३॥)

समदुःखसुखः पूर्ण आशानैराश्ययोः समः |
समजीवितमृत्युः सन्नेवमेव लयं व्रज ||५- ४||

(स्वयं को सुख और दुःख में समान, पूर्ण, आशा और निराशा में समान, जीवन और मृत्यु में समान, सत्य जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥४॥ )

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (चतुर्थ अध्याय)

अष्टावक्र गीता
चतुर्थ अध्याय

जनक उवाच ||
हन्तात्मज्ञानस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया |
न हि संसारवाहीकैर्मूढैः सह समानता ||४- १||

(अष्टावक्र कहते हैं -
स्वयं को जानने वाला बुद्धिमान व्यक्ति इस संसार की परिस्थितियों को खेल की तरह लेता है, उसकी सांसारिक परिस्थितियों का बोझ (दबाव) लेने वाले मोहित व्यक्ति के साथ बिलकुल भी समानता नहीं है॥१॥)

यत् पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः |
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ||४- २||

(जिस पद की इन्द्र आदि सभी देवता इच्छा रखते हैं, उस पद में स्थित होकर भी योगी हर्ष नहीं करता है॥२॥)

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते |
न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि सङ्गतिः ||४- ३||

(उस (ब्रह्म) को जानने वाले के अन्तःकरण से पुण्य और पाप का स्पर्श नहीं होता है जिस प्रकार आकाश में दिखने वाले धुएँ से आकाश का संयोग नहीं होता है ॥३॥)

आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना |
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः ||४- ४||

(जिस महापुरुष ने स्वयं को ही इस समस्त जगत के रूप में जान लिया है, उसके स्वेच्छा से वर्तमान में रहने को रोकने की सामर्थ्य किसमें है॥४॥)

आब्रह्मस्तंबपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे |
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने ||४- ५||

(ब्रह्मा से तृण तक, चारों प्रकार के प्राणियों में केवल आत्मज्ञानी ही इच्छा और अनिच्छा का परित्याग करने में समर्थ है॥५॥)

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम् |
यद् वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित् ||४- ६||

(आत्मा को एक और जगत का ईश्वर कोई कोई ही जानता है, जो ऐसा जान जाता है उसको किसी से भी किसी प्रकार का भय नहीं है ॥६॥)

सोमवार, 25 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (तृतीय अध्याय)

अष्टावक्र गीता
तृतीय अध्याय

|| अष्टावक्र उवाच ||
अविनाशिनमात्मानं एकं विज्ञाय तत्त्वतः |
तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः ||३- १||

(अष्टावक्र कहते हैं - आत्मा को अविनाशी और एक जानो । उस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की रूचि धन अर्जित करने में कैसे हो सकती है ॥१॥)

आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे |
शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे ||३- २||

(स्वयं के अज्ञान से भ्रमवश विषयों से लगाव हो जाता है जैसे सीप में चाँदी का भ्रम होने पर उसमें लोभ उत्पन्न हो जाता है ॥२॥)

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे |
सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि ||३- ३||

(सागर से लहरों के समान जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, वह मैं ही हूँ जानकर तुम एक दीन जैसे कैसे भाग सकते हो ॥३॥)

श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरम् |
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति ||३- ४||

(यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो॥४॥)

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि |
मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते ||३- ५||

(सभी प्राणियों में स्वयं को और स्वयं में सब प्राणियों को जानने वाले मुनि में ममता की भावना का बने रहना आश्चर्य ही है ॥५॥ )

आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः |
आश्चर्यं कामवशगो विकलः केलिशिक्षया ||३- ६||

(एक ब्रह्म का आश्रय लेने वाले और मोक्ष के अर्थ का ज्ञान रखने वाले का आमोद-प्रमोद द्वारा उत्पन्न कामनाओं से विचलित होना आश्चर्य ही है ॥६॥)

उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रमवधार्यातिदुर्बलः |
आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः ||३- ७||

(अंत समय के निकट पहुँच चुके व्यक्ति का उत्पन्न ज्ञान के अमित्र काम की इच्छा रखना, जिसको धारण करने में वह अत्यंत अशक्त है, आश्चर्य ही है ॥७॥)

इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः |
आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षाद् एव विभीषिका ||३- ८||

(इस लोक और परलोक से विरक्त, नित्य और अनित्य का ज्ञान रखने वाले और मोक्ष की कामना रखने वालों का मोक्ष से डरना, आश्चर्य ही है ॥८॥ )

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा |
आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति ||३- ९||

(सदा केवल आत्मा का दर्शन करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति भोजन कराने पर या पीड़ित करने पर न प्रसन्न होते हैं और न क्रोध ही करते हैं ॥९॥ )

चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत् |
संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः ||३- १०||

(अपने कार्यशील शरीर को दूसरों के शरीरों की तरह देखने वाले महापुरुषों को प्रशंसा या निंदा कैसे विचलित कर सकती है ॥१०॥)

मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः |
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः ||३- ११||

(समस्त जिज्ञासाओं से रहित, इस विश्व को माया में कल्पित देखने वाले, स्थिर प्रज्ञा वाले व्यक्ति को आसन्न मृत्यु भी कैसे भयभीत कर सकती है ॥११॥)

निःस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः |
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते ||३- १२||

(निराशा में भी समस्त इच्छाओं से रहित, स्वयं के ज्ञान से प्रसन्न महात्मा की तुलना किससे की जा सकती है ॥१२॥)

स्वभावाद् एव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन |
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधीः ||३- १३||

(स्वभाव से ही विश्व को दृश्यमान जानो, इसका कुछ भी अस्तित्व नहीं है। यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य, देखने वाला स्थिर प्रज्ञायुक्त व्यक्ति क्या देखता है? ॥१३॥)

अंतस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः |
यदृच्छयागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टये ||३- १४||

(विषयों की आतंरिक आसक्ति का त्याग करने वाले, संदेह से परे, बिना किसी इच्छा वाले व्यक्ति को स्वतः आने वाले भोग न दुखी कर सकते है और न सुखी ॥१४॥ )

रविवार, 24 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (द्वितीय अध्याय)

अष्टावक्र गीता

द्वितीय अध्याय

||जनक उवाच ||
अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः |
एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडंबितः ||२- १||

(राजा जनक कहते हैं - आश्चर्य! मैं निष्कलंक, शांत, प्रकृति से परे, ज्ञान स्वरुप हूँ, इतने समय तक मैं मोह से संतप्त किया गया॥१॥)

यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत् |
अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किंचन ||२- २||

(जिस प्रकार मैं इस शरीर को प्रकाशित करता हूँ, उसी प्रकार इस विश्व को भी। अतः मैं यह समस्त विश्व ही हूँ अथवा कुछ भी नहीं॥२॥)

स शरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाधुना |
कुतश्चित् कौशलाद् एव परमात्मा विलोक्यते ||२- ३||

(अब शरीर सहित इस विश्व को त्याग कर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है ॥३॥)

यथा न तोयतो भिन्नास्तरंगाः फेनबुद्बुदाः |
आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ||२- ४||

(जिस प्रकार पानी लहर, फेन और बुलबुलों से पृथक नहीं है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं से निकले इस विश्व से अलग नहीं है ॥४॥)

तन्तुमात्रो भवेद् एव पटो यद्वद् विचारितः |
आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद् विश्वं विचारितम् ||२- ५||

(जिस प्रकार विचार करने पर वस्त्र तंतु (धागा) मात्र ही ज्ञात होता है, उसी प्रकार यह समस्त विश्व आत्मा मात्र ही है॥५॥)

यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा |
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम् ||२- ६||

(जिस प्रकार गन्ने के रस से बनी शक्कर उससे ही व्याप्त होती है, उसी प्रकार यह विश्व मुझसे ही बना है और निरंतर मुझसे ही व्याप्त है॥६॥)

आत्मज्ञानाज्जगद् भाति आत्मज्ञानान्न भासते |
रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद् भासते न हि ||२- ७||

(आत्मा अज्ञानवश ही विश्व के रूप में दिखाई देती है, आत्म-ज्ञान होने पर यह विश्व दिखाई नहीं देता है। रस्सी अज्ञानवश सर्प जैसी दिखाई देती है,रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प दिखाई नहीं देता है॥७॥)

प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः |
यदा प्रकाशते विश्वं तदाहं भास एव हि ||२- ८||

(प्रकाश मेरा स्वरुप है, इसके अतिरिक्त मैं कुछ और नहीं हूँ। वह प्रकाश जैसे इस विश्व को प्रकाशित करता है वैसे ही इस "मैं" भाव को भी॥८॥)

अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयि भासते |
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा ||२- ९||

(आश्चर्य, यह कल्पित विश्व अज्ञान से मुझमें दिखाई देता है जैसे सीप में चाँदी, रस्सी में सर्प और सूर्य किरणों में पानी॥९॥)

मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति |
मृदि कुंभो जले वीचिः कनके कटकं यथा ||२- १०||

(मुझसे उत्पन्न हुआ विश्व मुझमें ही विलीन हो जाता है जैसे घड़ा मिटटी में, लहर जल में और कड़ा सोने में विलीन हो जाता है॥१०॥)

अहो अहं नमो मह्यं विनाशो यस्य नास्ति मे |
ब्रह्मादिस्तंबपर्यन्तं जगन्नाशोऽपि तिष्ठतः ||२- ११||

(आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी जिसका विनाश नहीं होता, जो तृण से ब्रह्मा तक सबका विनाश होने पर भी विद्यमान रहता है॥११॥)

अहो अहं नमो मह्यं एकोऽहं देहवानपि |
क्वचिन्न गन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः ||२- १२||

(आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, मैं एक हूँ, शरीर वाला होते हुए भी जो न कहीं जाता है और न कहीं आता है और समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित है॥१२॥)

अहो अहं नमो मह्यं दक्षो नास्तीह मत्समः |
असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम् ||२- १३||

(आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जो कुशल है और जिसके समान कोई और नहीं है, जिसने इस शरीर को बिना स्पर्श करते हुए इस विश्व को अनादि काल से धारण किया हुआ है ॥१३॥)

अहो अहं नमो मह्यं यस्य मे नास्ति किंचन |
अथवा यस्य मे सर्वं यद् वाङ्मनसगोचरम् ||२- १४||

(आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जिसका यह कुछ भी नहीं है अथवा जो भी वाणी और मन से समझ में आता है वह सब जिसका है ॥१४॥)

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम् |
अज्ञानाद् भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः ||२- १५||

(ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं हैं, यह जो अज्ञानवश दिखाई देता है वह निष्कलंक मैं ही हूँ ॥१५॥ )

द्वैतमूलमहो दुःखं नान्यत्तस्याऽस्ति भेषजम् |
दृश्यमेतन् मृषा सर्वं एकोऽहं चिद्रसोमलः ||२- १६||

(द्वैत (भेद) सभी दुखों का मूल कारण है। इसकी इसके अतिरिक्त कोई और औषधि नहीं है कि यह सब जो दिखाई दे रहा है वह सब असत्य है। मैं एक, चैतन्य और निर्मल हूँ॥१६॥)

बोधमात्रोऽहमज्ञानाद् उपाधिः कल्पितो मया |
एवं विमृशतो नित्यं निर्विकल्पे स्थितिर्मम ||२- १७||

(मैं केवल ज्ञान स्वरुप हूँ, अज्ञान से ही मेरे द्वारा स्वयं में अन्य गुण कल्पित किये गए हैं, ऐसा विचार करके मैं सनातन और कारणरहित रूप से स्थित हूँ॥१७॥)

न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा भ्रान्तिः शान्तो निराश्रया |
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम् ||२- १८||

(न मुझे कोई बंधन है और न कोई मुक्ति का भ्रम। मैं शांत और आश्रयरहित हूँ। मुझमें स्थित यह विश्व भी वस्तुतः मुझमें स्थित नहीं है॥१८॥ )

सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितम् |
शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना ||२- १९||

(यह निश्चित है कि इस शरीर सहित यह विश्व अस्तित्वहीन है, केवल शुद्ध, चैतन्य आत्मा का ही अस्तित्व है। अब इसमें क्या कल्पना की जाये ॥१९॥)

शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा |
कल्पनामात्रमेवैतत् किं मे कार्यं चिदात्मनः ||२- २०||

(शरीर, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष और भय ये सब कल्पना मात्र ही हैं, इनसे मुझ चैतन्य स्वरुप का क्या प्रयोजन है॥२०॥)

अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम |
अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम् ||२- २१||

(आश्चर्य कि मैं लोगों के समूह में भी दूसरे को नहीं देखता हूँ, वह भी निर्जन ही प्रतीत होता है। अब मैं किससे मोह करूँ ॥२१॥)

नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित् |
अयमेव हि मे बन्ध आसीद्या जीविते स्पृहा ||२- २२||

(न मैं शरीर हूँ न यह शरीर ही मेरा है, न मैं जीव हूँ , मैं चैतन्य हूँ। मेरे अन्दर जीने की इच्छा ही मेरा बंधन थी ॥२२॥)

अहो भुवनकल्लोलैर्विचित्रैर्द्राक् समुत्थितम् |
मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते समुद्यते ||२- २३||

(आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु उठने पर ब्रह्माण्ड रूपी विचित्र तरंगें उपस्थित हो जाती हैं ॥२३॥)

मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति |
अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वरः ||२- २४||

(मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु के शांत होने पर जीव रूपी वणिक का संसार रूपी जहाज जैसे दुर्भाग्य से नष्ट हो जाता है॥२४॥)

मय्यनन्तमहांभोधावाश्चर्यं जीववीचयः |
उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः ||२- २५||

(आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में जीव रूपी लहरें उत्पन्न होती हैं, मिलती हैं, खेलती हैं और स्वभाव से मुझमें प्रवेश कर जाती हैं ॥२५॥ )

।। शिव महिम्न: स्तोत्रम् ।।

।। शिव महिम्न: स्तोत्रम् ।।

एक समय चित्ररथ नाम के राजा ने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के सुंदर फूल लग रहे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे। एक दिन पुष्पदंत नामक गन्धर्व जो इंद्र के दरबार में गायक था, उद्यान की तरफ से जाते हुए फूलों की सुंदरता से मोहित हो कर उन्हें चुराने लगा। परिणाम स्वरुप राजा चित्ररथ भगवान शिव को फूल अर्पित नहीं कर पा रहे थे। राजा बहुत प्रयास के बाद भी चोर को पकड़ने में असफल रहे क्योंकि गन्धर्व पुष्पदंत में अदृश्य रहने की शक्ति थी। अंत में राजा ने अपने बगीचे में शिव निर्माल्य फैला दिया। अनजाने में पुष्पदंत शिव निर्माल्य के ऊपर से चला गया, जिससे उसे भगवान शिव का कोप भाजन बनाना पड़ा। फलतः पुष्पदंत की दिव्य शक्तियाँ नष्ट हो गयीं। उसने क्षमा याचना के लिए भगवान शिव की महिमा का गुणगान करते हुए स्तुति की। भगवान शिव की कृपा से पुष्पदंत की दिव्य शाक्तियाँ लौट आयीं। पुष्पदंत द्वारा रचित भगवान शिव की स्तुति 'शिव महिम्न्स्तोत्रं' के नाम से प्रसिद्द हुई। ४३ क्षन्दो का यह स्तोत्र शिव भक्तों को अत्यंत प्रिय है।

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी ।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ।।१।।

(हे प्रभु ! बड़े बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती ? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती ? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी । मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।)

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः ।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः ।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ।।२।।

(हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन, न ही वचन द्वारा संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा 'नेति नेति' का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है, लेकिन जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो आपके भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते। ये आपके प्रति उनके प्यार और पूज्यभाव का परिणाम है।)

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः ।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः ।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ।।३।।

(हे वेद और भाषा के सृजक ! आपने अमृतमय वेदों की रचना की है। इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते है तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होता। मै भी अपनी मति अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।)

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् ।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु ।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं ।
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ।।४।।

(हे देव ! आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है। इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम। वेदों में इनके बारे में वर्णन किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है। ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, किन्तु यथार्थ से वो मुँह नहीं मोड़ सकते।)

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः ।
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ।।५।।

(हे महादेव !!! मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन वस्तुओं से उसे बनाया गया इत्यादि। उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है। सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित शक्ति से उसे व्यक्त करना असंभव है।)

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां ।
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो ।
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ।।६।।

( हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यं) का निर्माण क्या संभव है? इस जगत का कोई रचयिता न हो, ऐसा क्या संभव है?आपके अलावा इस सृष्टि का निर्माण भला कौन कर सकता है ?आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है।)

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति ।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।७।।

(हे परमपिता !!! हे प्रभु ! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि । लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग को पसंद करते है। मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, आप तक पहुंचते है । सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।)

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः ।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां ।
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।८।।

(हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ कुल्हाडी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी)! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता।)

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं ।
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव ।
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ।।९।।

(हे त्रिपुरहंता !!! इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं. कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है। लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति मे आनंद पाते है। मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ये कहना धृष्टता लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं।)

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः ।
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः ।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् ।
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।।१०।।

(हे प्रभु ! जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया । ब्रह्मा और विष्णु – दोनों नें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो सफल न हो सके। आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया। सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों एसा कभी हो सकता है भला ?)

अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं ।
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् ।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः ।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ।।११।।

(हे त्रिपुरान्तक !!! आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये। जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया। इस वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ भक्ति का नतीजा है।)

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं ।
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि ।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ।।१२।।

(हे शिव !!! आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाढ़ देना चाहा। जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठीं। उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला। सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।)

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं ।
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः ।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः ।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ।।१३।।

(हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन गया तथा तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।)

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा ।
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो ।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः ।।१४।।

(हे प्रभु ! जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था। आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया। विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये। परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढाता है। जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।)

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे ।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् ।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ।।१५।।

(हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव हों। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भष्म कर दिया। श्रेष्ठ जनो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।)

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं ।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् ।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा ।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।१६।।

(हे नटराज !!! जब संसार के कल्याण हेतु आप तांडव करने लगते हैं तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठती है, आपके पदप्रहार से पृथ्वी अपना अंत समीप देखती है ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है और आपकी भुजाओं के बल से वैंकुंठ में खलबली मच जाती है। हे महादेव ! आश्चर्य ही है कि आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।)

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः ।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति ।
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ।।१७।।

(गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है । बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है। ये आपके दिव्य और महिमावान स्वरूप का ही परिचायक है।)

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो ।
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति ।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः ।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ।।१८।।

(हे शिव !!! आपने (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को दो पहिये मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णुजी का बाण लिया। हे शम्भू ! इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।)

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः ।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः ।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ।।१९।।

(जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से विष्णुजी ने अपनी एक आँख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी इसी अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं। हे प्रभु, आप तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जाग्रत रहते हो।)

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं ।
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ।।२०।।

(हे देवाधिदेव !!! यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो। आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नही होता। यही वजह है कि वेदों मे श्रद्धा रखके और आपको फलदाता मानकर हर कोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते है।)

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां ।
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः ।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः ।
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ।।२१।।

(हे प्रभु !!! यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तद्यपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है इसीलिए दक्षप्रजापति के महायज्ञ यज्ञ को जिसमें स्वयं ब्रह्मा तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए, आपने नष्ट कर दिया क्योंकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया। सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते है।)

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं ।
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं ।
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ।।२२।।

(एक बार प्रजापिता ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए। जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरुप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर ! तब आप ने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा को मार भगाया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा में अदृश्य अवश्य हुए परन्तु आज भी वह आपसे भयभीत हैं।)

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत् ।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात् ।
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ।।२३।।

(हे त्रिपुरानाशक ! जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाही और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया। अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती है कि आप उन पर मुग्ध है क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उनका है, तो ये उनका भ्रम होगा। सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है।)

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः ।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः ।।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं ।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ।।२४।।

(हे भोलेनाथ !!! आप श्मशान में रमण करते हैं, भूत - प्रेत आपके मित्र हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी ! उन भक्तों जो आपका स्मरण करते है, आप सदैव शुभ और मंगल करते है।)

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः ।
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः ।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये ।
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ।।२५।।

(हे योगिराज !!! आपको पाने के लिए योगी क्या क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमाकर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते है और उसमें सफल होने पर हर्षाश्रु बहाते है। सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है।)

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः ।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं ।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ।।२६।।

(हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव ! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।)

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान् ।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति ।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ।।२७।।

(हे सर्वेश्वर !!! ॐ शब्द अ, ऊ, म से बना है। ये तीन शब्द तीन लोक – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था – स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक है। लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरीय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है।)

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान् ।
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि ।
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ।।२८।।

(हे शिव ! वेद एवं देवगण आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान। हे शम्भू ! मैं भी आपकी इन नामों की भावपूर्वक स्तुति करता हूँ।)

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः ।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः ।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ।।२९।।

(हे एकांतप्रिय प्रभु ! आप सब से दूर हैं फिर भी सब के पास है। हे कामदेव को भस्म करनेवाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म है फिर भी विराट है। हे तीन नेत्रोंवाले प्रभु ! आप वृद्ध है और युवा भी है। हे महादेव ! आप सब में है फिर भी सब से पर है। आपको मेरा प्रणाम है।)

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः ।
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः ।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः ।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ।।३०।।

(हे प्रभु ! मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपके ब्रह्मा स्वरूप को नमन करता हूँ। तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मैं नमन करता हूँ। सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को नमस्कार है। इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार है।)

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं ।
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः ।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् ।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ।।३१।।

(हे वरदाता (शिव) ! मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है। मैं दुविधा में हूँ कि ऐसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता। अतः ये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।)

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे ।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं ।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ।।३२।।

(यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।)

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः ।
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः ।
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ।।३३।।

(हे प्रभु ! आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय है, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है, और आप सभी गुणों से परे है। आपकी इसी दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पंदत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ।)

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् ।
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः ।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र ।
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ।।३४।।

(पवित्र और भक्तिभावपूर्ण हृदय से जो मनुष्य इस स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी इच्छा के अनुसार धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा। इतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा । शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होंगी।)

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ।।३५।।

(शिव से श्रेष्ठ कोइ देव नहीं, शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं है, भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान कोई मंत्र नहीं है और ना ही गुरु से बढकर कोई पूजनीय तत्व।)

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।३६।।

(शिवनहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है।)

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः ।
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः ।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् ।
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ।।३७।।

(पुष्पदन्त गंधर्वों का राजा, चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परम भक्त था। मगर भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ। महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने ये महिम्नस्तोत्र की रचना की है।)

सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं ।
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः ।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः ।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ।।३८।।

(जो मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्तिभावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देनेवाले, देवता और मुनिओं के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा। पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है।)

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ।।३९।।

(पुष्पदंत गन्धर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है।)

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः ।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ।।४०।।

(हे प्रभु ! वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरणकमलों में सादर अर्पित है । कृपया इसका स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाये रखें।)

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ।।४१।।

(हे शिव ! हे महेश्वर !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता। लेकिन आप जैसे भी है, जो भी है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।)

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ।।४२।।

(जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वह सर्व प्रकार के पाप से मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।)

श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन ।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण ।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन ।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ।।४३।।

(पुष्पदंत के मुखपंकज से उदित, पाप का नाश करनेवाली, भगवान शंकर की अतिप्रिय यह स्तुति का जो पठन करेगा, गान करेगा या उसे सिर्फ अपने स्थान में रखेगा, तो भोलेनाथ शिव उन पर अवश्य प्रसन्न होंगे ।)

।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् ।।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (प्रथम अध्याय)

अष्टावक्र गीता
प्रथम अध्याय

जनक उवाच -
कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो ॥१-१॥

(वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं॥१॥)

अष्टावक्र उवाच -
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज ॥१-२॥

(श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदिआप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥२॥)

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥१-३॥

(आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए ॥३॥)

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥१-४॥

(यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे ॥४॥)

न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर: ।
असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥१-५॥

(आप ब्राह्मण आदि सभी जातियोंअथवा ब्रह्मचर्य आदि सभीआश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैंआप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ)

धर्माधर्मौ सुखं दुखं मानसानि न ते विभो ।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ॥१-६॥

(धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं )

एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा ।
अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥१-७॥

(आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं)

अहं कर्तेत्यहंमानमहाकृष्णाहिदंशितः ।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव ॥१-८॥

(अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेते हैं 'मैं कर्ता नहीं हूँ', इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये )

एको विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना ।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव ॥१-९॥

(मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ)

यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत् ।
आनंदपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर ॥१-१०॥

(जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें)

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवे
त् ॥१-१

(स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है ।।११।।)

त्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव ॥१-१२॥

(आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण,एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है ।।१२।।)

कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।
आभासोऽहं
भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम् ॥१-१३॥

(अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें ।।१३।।)

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक ।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन
तन्निष्कृत्य
सुखी भव ॥१-१४॥

(हे पुत्र! बहुत समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ ।।१४।।)

निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते
बन्धः समाधिमनुतिष्ठति ॥१-१५॥

(आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है।।१५।।)

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः ।
शुद्धबुद्ध
स्वरुप
स्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम् ॥१-१६॥

(यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो ६।)

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः ।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन: ॥१-१७॥

(आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये ।।१७।।)

साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं ।
एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव: ॥१-१८॥

(आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है ।।१८।।)

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः ।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः ॥१-१९॥

(जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी ।।१९।।)

एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे ।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ॥१-२०॥

(जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है ।।२०।।)