शनिवार, 23 जुलाई 2011

अष्टावक्र गीता (प्रथम अध्याय)

अष्टावक्र गीता
प्रथम अध्याय

जनक उवाच -
कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो ॥१-१॥

(वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं॥१॥)

अष्टावक्र उवाच -
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज ॥१-२॥

(श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदिआप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥२॥)

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥१-३॥

(आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए ॥३॥)

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥१-४॥

(यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे ॥४॥)

न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर: ।
असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥१-५॥

(आप ब्राह्मण आदि सभी जातियोंअथवा ब्रह्मचर्य आदि सभीआश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैंआप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ)

धर्माधर्मौ सुखं दुखं मानसानि न ते विभो ।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ॥१-६॥

(धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं )

एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा ।
अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥१-७॥

(आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं)

अहं कर्तेत्यहंमानमहाकृष्णाहिदंशितः ।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव ॥१-८॥

(अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेते हैं 'मैं कर्ता नहीं हूँ', इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये )

एको विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना ।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव ॥१-९॥

(मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ)

यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत् ।
आनंदपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर ॥१-१०॥

(जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें)

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवे
त् ॥१-१

(स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है ।।११।।)

त्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव ॥१-१२॥

(आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण,एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है ।।१२।।)

कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।
आभासोऽहं
भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम् ॥१-१३॥

(अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें ।।१३।।)

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक ।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन
तन्निष्कृत्य
सुखी भव ॥१-१४॥

(हे पुत्र! बहुत समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ ।।१४।।)

निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते
बन्धः समाधिमनुतिष्ठति ॥१-१५॥

(आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है।।१५।।)

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः ।
शुद्धबुद्ध
स्वरुप
स्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम् ॥१-१६॥

(यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो ६।)

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः ।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन: ॥१-१७॥

(आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये ।।१७।।)

साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं ।
एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव: ॥१-१८॥

(आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है ।।१८।।)

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः ।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः ॥१-१९॥

(जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी ।।१९।।)

एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे ।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ॥१-२०॥

(जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है ।।२०।।)

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