रविवार, 30 अक्तूबर 2011

चतुःश्लोकी


॥ चतुःश्लोकी ॥

सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः।
स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्वापि कदाचन॥१॥

(सभी समय, सब प्रकार से व्रज के राजा श्रीकृष्ण का ही स्मरण करना चाहिए। केवल यह ही धर्म है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं॥१॥)

एवं सदा स्वकर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति।
प्रभुः सर्व समर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत् ॥२॥

(इस प्रकार अपने कर्तव्यों का हमेशा पालन करते रहना चाहिए, प्रभु सर्व समर्थ हैं इसको ध्यान रखते हुए निश्चिन्ततापूर्वक रहें॥२॥)

यदि श्रीगोकुलाधीशो धृतः सर्वात्मना हृदि।
ततः किमपरं ब्रूहि लोकिकैर्वैदिकैरपि॥३॥

(यदि तुमने सबके आत्मस्वरुप गोकुल के राजा श्रीकृष्ण को अपने ह्रदय में धारण किया हुआ है, फिर क्या उससे बढ़कर कोई और सांसारिक और वैदिक कार्य है॥३॥)

अतः सर्वात्मना शश्ववतगोकुलेश्वर पादयोः।
स्मरणं भजनं चापि न त्याज्यमिति मे मतिः॥४॥
॥इति श्री वल्लभाचार्य कृत चतुःश्लोकी सम्पूर्णा॥

(अतः सबके आत्मस्वरुप गोकुल के शाश्वत ईश्वर श्रीकृष्ण के चरणों का स्मरण और भजन कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए, ऐसा मेरा (श्री वल्लभाचार्य का) विचार है॥४॥)
(॥इस प्रकार श्री वल्लभाचार्य कृत चतुःश्लोकी पूर्ण हुआ॥)

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

अष्टावक्र गीता (सप्तदश अध्याय)


|| अष्टावक्र गीता ||
सप्तदश अध्याय


अष्टावक्र उवाच -
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा |
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यं एकाकी रमते तु यः ||१७- १||

(श्री अष्टावक्र जी कहते हैं -
जो पुरुष नित्य तृप्त है, शुद्ध इन्द्रिय वाला है और अकेला रमता है, उसे ही ज्ञान का फल और योग के अभ्यास का फल प्राप्त होता है॥१॥)  

न कदाचिज्जगत्यस्मिन् तत्त्वज्ञा हन्त खिद्यति |
यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्डमण्डलम् ||१७- २||

(तत्व ज्ञानी इस जगत के लिए कभी भी खेद को प्राप्त नहीं होता है क्योंकि (वह जनता है कि) उसी एक से यह ब्रह्मांड मंडल पूर्ण है॥२॥)

न जातु विषयाः केऽपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी |
सल्लकीपल्लवप्रीतमिवेभं निंबपल्लवाः ||१७- ३||

(ये कोई भी बिषय स्वात्माराम (आत्मा में रमण करने वाले) को कभी भी हर्षित नहीं करते हैं जैसे सल्लकी (गन्नों) के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते हर्षित नहीं करते॥३॥)

यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता |
अभुक्तेषु निराकांक्षी तदृशो भवदुर्लभः ||१७- ४||

(जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं होता है और अभुक्त पदार्थों के प्रति आकांक्षा रहित है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है॥४॥)

बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते |
भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः ||१७- ५||

(इस संसार में भोग और मोक्ष की इच्छा वाले (अनेकों मनुष्य) देखे जाते हैं परन्तु भोग और मोक्ष की आकांक्षा से रहित कोई विरला ही महापुरुष है॥५॥)

धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा |
कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि ||१७- ६||

(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मरण किस उदारचित्त के लिए ग्रहण और त्याग करने योग्य नहीं है? (अर्थात इनसे कौन उदासीन है।)॥६॥)

वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ |
यथा जीविकया तस्माद् धन्य आस्ते यथा सुखम् ||१७- ७||

(विश्व के लय होने में जिसका राग नहीं है उसकी स्थिति में जिसको द्वेष नहीं है। यथा प्राप्य जीविका द्वारा जो पुरुष सुख पूर्वक रहता है इसी कारण वह धन्य है॥७॥)

कृतार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती |
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्नास्ते यथा सुखम् ||१७- ८||

(इस ज्ञान से मैं कृतार्थ हूँ। इस प्रकार जिसकी बुद्धि गलित (निष्ठ) हो गयी है, ऐसा ज्ञानी पुरुष, देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सुख पूर्वक रहता है॥८॥)

शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च |
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे ||१७- ९||

(जिसके लिए संसार सागर नष्ट हो गया है, ऐसे पुरुष की दृष्टि शून्य हो जाती है, चेष्टाएँ (व्यापार) व्यर्थ हो जाती हैं, इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं, उसकी (संसार में) कोई इच्छा अथवा विरक्ति नहीं रहती है॥९॥)

न जागर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति |
अहो परदशा क्वापि वर्तते मुक्तचेतसः ||१७- १०||

(न जगत है, न सोता है, न पलक को खोलता है और न पलक को बंद करता है। आश्चर्य है मुक्तचित्त (ज्ञानी) कैसी उत्कृष्ट दशा में वर्तता (रहता) है॥१०॥)

सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः |
समस्तवासना मुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते ||१७- ११||

(जीवन मुक्त ज्ञानी सब जगह स्वस्थ (शांत), सब जगह निर्मल अन्तः करणवाला दिखलाई देता है और सब जगह सब वासनाओं से रहित हो कर विराजता (रहता) है॥११॥)

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन् गृण्हन् वदन् व्रजन् |
ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः ||१७- १२||

(देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, जाता हुआ निश्चय ही राग-द्वेष से मुक्त (छूटा) हुआ ऐसा महापुरुष मुक्त (ज्ञानी) है॥१२॥)

न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति |
न ददाति न गृण्हाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः ||१७- १३||

(न निंदा करता है, न स्तुति करता है, न हर्ष को प्राप्त होताहै, न क्रोध करता है, न देता है, न लेता है। ज्ञानी सर्वत्र रस रहित है॥१३॥)

सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितम् |
अविह्वलमनाः स्वस्थो मुक्त एव महाशयः ||१७- १४||

(प्रीति युक्त स्त्री को और समीप में स्थित मृत्यु को देख कर, व्याकुलता से रहित और शांत महापुरुष निश्चय ही मुक्त (ज्ञानी) है॥१४॥)

सुखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु विपत्सु च |
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः ||१७- १५||

(सुख में, दुःख में, नर (पुरुष) में, नारी (स्त्री) में, संपत्तियों में, विपत्तियों में ज्ञानी बिशेष रूप से सर्वत्र समदर्शी (भेद रहित) है॥१५॥)

न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता |
नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसरणे नरे ||१७- १६||

(जिस मनुष्य के लिए न हिंसा है, न दयालुता है, न उदंडता है, न दीनता है, न आश्चर्य है और न क्षोभ है, उसी का संसार क्षीण हुआ है। (वही जीवन मुक्त है)॥१६॥)

न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः |
असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते ||१७- १७||

(जो न बिषयों में द्वेष करने वाला और न (ही) बिषयों में लोभ करनेवाला है तथा जो सदा आसक्ति रहित मन से प्राप्त और अप्राप्त वस्तुओं का भोग करता है, वही जीवनमुक्त है॥१७॥)

समाधानसमाधानहिताहितविकल्पनाः |
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः ||१७- १८||

(जो समाधान और असमाधान, हित और अहित की कल्पना को नहीं जनता है ऐसा शून्य चित्तवाला (ज्ञानी) कैवल्य को प्राप्त हुआ (मोक्ष रूप से) स्थित है वही जीवनमुक्त है॥१८॥)

निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चितः |
अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वन्नपि करोति न ||१७- १९||

(जो ममता और अहंकार रहित है, जिसकी आशाएं उसके अभ्यंतर में गल (विलीन हो) गयी हैं, जो कुछ भी (मेरा) नहीं है ऐसा निश्चय करके कर्म करता है वह (कर्मों में कभी) लिप्त नहीं होता है॥१९॥)

मनःप्रकाशसंमोहस्वप्नजाड्यविवर्जितः |
दशां कामपि संप्राप्तो भवेद् गलितमानसः ||१७- २०||

(जिसका मन गल (नष्ट हो) गया है, वह मन के प्रकाश से, चित्त की शांति से, स्वप्न और सुषुप्ति से भी ऊपर उठकर अनिर्वचनीय (आत्मानंद) की दशा को प्राप्त होता है।(वही जीवन मुक्त है)॥२०॥)