सोमवार, 1 अगस्त 2011

अष्टावक्र गीता (सप्तम अध्याय)

अष्टावक्र गीता
सप्तम अध्याय

जनक उवाच -
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्ततः |
भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता ||७- १||

(राजा जनक कहते हैं - मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी जहाज अपनी अन्तः वायु से इधर - उधर घूमता है पर इससे मुझमें विक्षोभ नहीं होता है॥१॥)

मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः |
उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः ||७- २||

(मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी लहरें माया से स्वयं ही उदित और अस्त होती रहती हैं, इससे मुझमें वृद्धि या क्षति नहीं होती है॥२॥)

मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम विकल्पना |
अतिशांतो निराकार एतदेवाहमास्थितः ||७- ३||

(मुझ अनंत महासागर में विश्व एक अवास्तविकता (स्वप्न) है, मैं अति शांत और निराकार रूप से स्थित हूँ॥३॥)

नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरंजने |
इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त एतदेवाहमास्तितः ||७- ४||

(उस अनंत और निरंजन अवस्था में न 'मैं' का भाव है और न कोई अन्य भाव ही, इस प्रकार असक्त, बिना किसी इच्छा के और शांत रूप से मैं स्थित हूँ॥४॥)

अहो चिन्मात्रमेवाहं इन्द्रजालोपमं जगत् |
इति मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ||७- ५||

(आश्चर्य है मैं शुद्ध चैतन्य हूँ और यह जगत असत्य जादू के समान है, इस प्रकार मुझमें कहाँ और कैसे अच्छे (उपयोगी) और बुरे (अनुपयोगी) की कल्पना आ जाती है॥५॥)

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