रविवार, 7 अप्रैल 2013

उपदेश सारम्


उपदेश सारम्

कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम् ।
           कर्म किम् परम्, कर्म तज्जडम् ॥1॥


(समस्त कर्मों के फल ईश्वर के विधान के ही अनुसार जीवों को
प्राप्त होते हैं । क्या ’कर्म’ ईश्वर या ’विधाता’ हो सकता है ?
-कदापि नहीं, क्योंकि ’कर्म’ जड होने से ’असत्‌’ है, जबकि
’ईश्वर’ वह चेतन सत्ता , वह ’सत्‌’
तत्त्व है, जो कि जीवों को उनके समस्त फल उचित समय आने
पर ही उन्हें प्रदान करता है । वही एकमात्र परम्‌ ’कर्ता’ है, न कि
’जीव’, जो अपने अज्ञानवश अपने-आप को ’कर्ता’ मान बैठता है ॥1॥)


कृति महोदधौ पतनकारणम् ।
            फलमशाश्वतम् गतिनिरोधकम् ॥2॥


(कर्म के फल अनित्य होते हैं । कर्म के कारण पुनः पुनः कर्म करना पड़ता है,
जो कर्म-समुद्र का रूप ले लेता है । इस प्रकार से कर्म आध्यात्मिक उन्नति में
अवरोध बन जाता है ॥2॥)


(फ़िर कर्म कैसे करें ताकि वह आध्यात्मिक उन्नति में अवरोध न बने इस बारे
में अगले श्लोक क्रमांक में स्पष्ट किया जायेगा ।)


ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतम् ।
      चित्तशोधकं मुक्तिसाधकम् ॥3॥


(इच्छारहित और ईश्वर को समर्पित किए जानेवाले
कर्म, अन्तःकरण को शुद्ध करते हैं, और इसलिये
मुक्ति में सहायक होते हैं ॥3॥)


कायवाङ्मनः कार्यमुत्तमम् ।
          पूजनं जपश्चिन्तनम् क्रमात् ॥4॥


(ईश्वर की प्रतिमा की,साकार रूप की पूजा, वाणी द्वारा की जानेवाली उसकी
स्तुति, और मन में किया जानेवाला उसके स्वरूप का चिन्तन, निश्चय ही
उत्तरोत्तर श्रेष्ठतर हैं ॥4॥)


जगत ईशधीयुक्तसेवनम् ।
  अष्टमूर्तिभृद्देवपूजनम् ॥5॥


(यह दृश्य-जगत् आठ रूपों में व्यक्त साक्षात् ईश्वर का ही प्रकट स्वरूप है,
इस प्रकार की बुद्धि रखते हुए जगत् की सेवा करना भी उसकी वास्तविक
पूजा ही है ॥5॥)


उत्तमस्तवादुच्चमंदतः ।
          चित्तजं जपध्यानमुत्तमम् ॥6॥

(ऊँचे अथवा सामान्य स्वरों में किए जानेवाले ईश्वर के स्तवन की अपेक्षा मन्द
स्वरों में की जानेवाली स्तुति श्रेष्ठतर है । किन्तु मानसिक तल पर किया जानेवाला
ध्यान (जप-ध्यान) तो उससे भी अधिक उत्कृष्ट है ॥6॥)


आज्यधारया स्रोतसा समम् ।
      सरलचिन्तनं विरलतः परम् ॥7॥


(घृत (घी) की धारा के (समान) नदी के प्रवाह की भाँति (एकरूप),
अबाधित, व्यवधानरहित ध्यान, खन्डित होते रहनेवाले, बीच बीच में टूटते रहने
वाले ध्यान की अपेक्षा उत्कृष्ट है ॥7॥)


भेदभावनात्सोऽहमित्यसौ ।
      भावनाऽभिदा पावनी मता ॥8॥


(’मैं वह हूँ,’ अर्थात् ईश्वर और अपने को परस्पर अभिन्न समझकर,
इस अनन्यता की निष्ठा से प्रवृत्त भावना को "उससे ’मैं’ पृथक् हूँ",
इस प्रकार की भावना से उत्कृष्ट कहा गया है॥8॥)


भावशून्यसद्भावसुस्थितिः ।
     भावनाबलात् भक्तिरुत्तमा ॥9॥


(कल्पनाओं, वृत्तियों आदि से मुक्त रहते हुए, उनका अवलम्बन न लेते हुए,
अपनी स्वाभाविक स्थिति (सत्ता अर्थात् ’सत्’तत्त्व-मात्र) में अवस्थित हो
रहना परा-भक्ति है । श्लोक ८ में वर्णित ’सोऽहम्’ के ध्यान के परिपक्व होने
पर यह अवस्था आती है ॥9॥)


हृत्स्थले मनःस्वस्थताक्रिया ।
        भक्तियोगबोधाश्च निश्चितम् ॥10॥


(मन का उसके ’उदगम-स्थल’ में लौटकर सुस्थिर होकर,
निमग्न हो रहना ही, निस्सन्देह यथार्थ कर्मयोग, भक्तियोग,
राजयोग एवं ज्ञानयोग है ॥10॥)


वायुरोधनाल्लीयते मनः ।
        जालपक्षिवद्रोधसाधनम् ॥11॥


(जिस प्रकार जाल लगाकर किसी पक्षी को पकड़ लिया जाता है,
उसी प्रकार से प्राणायाम के माध्यम से चित्त का निरोध किया जा
सकता है, और तब चित्त (अस्थायी रूप से) लय को प्राप्त होता है ।
यह भी मनःसंयम का एक साधन है ॥11॥)


चित्तवायवश्चित्क्रियायुता ।
        शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका ॥12॥


(चित्त एवं श्वास् (अर्थात् प्राण) क्रमशः ज्ञानशक्ति-प्रधान और क्रियाशक्ति-प्रधान होते हैं,
किन्तु वस्तुतः तो वे एक ही मौलिक शक्ति से निकलनेवाली दो शाखाएँ होते हैं॥12॥)


लयविनाशने उभयरोधने ।
           लयगतं पुनर्भवति नो मृतम् ॥13॥


(मनोनिग्रह दो प्रकार से हो सकता है -
पहला, : मन का लय की अवस्था में डूब जाने पर,
दूसरा, : मन का नाश हो जाने पर ।
लय में डूबा हुआ मन बाहर लौटकर पुनः पहले की तरह कार्यशील
हो जाता है, जबकि नष्ट हो चुका मन फ़िर लौटता नहीं ॥13॥)


(
यह सूक्ष्म भेद साधक और सिद्ध (जीवन्मुक्त) के बीच होता है ।)


प्राणबन्धनाल्लीनमानसः ।
        एकचिन्तनान्नाशमेत्यदः ॥14॥


(प्राणायाम की सहायता से तो मन केवल लय को प्राप्त होता है,
किन्तु वही मन जब एक तत्त्व का अनुसंधान करता है, तो नष्ट हो जाता है ॥14॥)


नष्टमानसोत्कृष्ट योगिनः ।
              कृत्यमस्ति किं स्वस्थितिं यतः ॥15॥


(वह श्रेष्ठ योगी, जो निरन्तर सहजा-अवस्था में सुस्थिर रहता है,
उसे करने के लिये भला क्या कोई कार्य शेष होता है ?
वह तो कृत्कृत्य हो चुका होता है ॥15॥)


दृश्यवारितं चित्तमात्मनः ।
    चित्वदर्शनं तत्त्वदर्शनं ॥16॥


(जब मन को विषयों से हटाकर अन्तर्मुख कर् लिया जाता है,
तो यह अपने स्रोत ’चैतन्य-तत्त्व’ का दर्शन करने लगता है ।
ऐसा दर्शन ही तत्त्वदर्शन भी है ॥16॥)

(यहाँ ’विषय’ से तात्पर्य है, बाह्य-विषय अर्थात् पाँचों ज्ञानेन्द्रियों
से ग्रहण किये जानेवाले ’स्थूल’ विषय, एवं ’अन्तःकरण’ के माध्यम
से ग्रहण किये जानेवाले ’सूक्ष्म’ विषय जैसे ’विचार’, ’भावनाएँ’ आदि ।
अन्तःकरण के अन्तर्गत ’मन’ ’चित्त’ ’बुद्धि’ एवं ’अहं’ आते हैं ।
स्पष्ट है कि ये एक ही ’जीव-भाव’ के चार पक्ष हैं । अन्तःकरण इन्हीं
चार के माध्यम से अपना कार्य करता है । ’विचारों’ के आवागमन को ’मन’,
’निर्णय करने की क्षमता’ को ’बुद्धि’, भावना को ’चित्त’, तथा ’मैं’-भावना या
’मैं’-संवेदन को ’अहं’ समझा जा सकता है । जब ’अपने’ सच्चे स्वरूप को इन
सब में अबाधित रूप से विद्यमान ’चैतन्य’
की तरह से देख लिया जाता है, तो मनुष्य ’तत्त्व-दर्शी’ हो जाता है ।)


मानसं तु किं मार्गणे कृते ।
        नैव मानसं मार्ग आर्जवात् ॥17॥


("मन का स्वरूप क्या है ?"
-जब इस बारे में अन्वेषण किया जाता है, तो ’मन’ नामक किसी सत्ता का
स्वतंत्र अस्तित्त्व ही नहीं है, यह स्पष्ट हो जाता है ॥17॥)


(मन के स्वरूप अर्थात् उसकी "वास्तविकता क्या है ?" इसका इस प्रकार
से अन्वेषण किया जाना मन से मुक्ति का सीधा मार्ग है, क्योंकि इसमें जो
’मन’ अन्वेषण के प्रारंभ में अस्तित्त्वमान जैसा प्रतीत होता है, उसे ही
अन्वेषण में लगा दिया जाता है । जबकि ’मन’ से मुक्ति के अन्य तरीकों में
’मन’ को पहले से ही सत्य की तरह ग्रहण किया जाता है, और इसलिये
वह अंत तक विद्यमान रहता है ।)


वृत्तयस्त्वहं-वृत्तिमाश्रिता ।
          वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः ॥18॥


(मन केवल वृत्तिसमूह मात्र है । वे सभी वृत्तियाँ ’अहं-संकल्प’ के आश्रित
होती हैं । अतः ’अहं’ वृत्ति ही स्वरूपतः मन है, इसे जान लो ॥18॥)


अहमयं कुतो भवति चिन्वतः ।
         अयि पतत्यहं निजविचारणम् ॥19॥


("यह ’मैं’ कहाँ से अस्तित्त्व में आता है",
-जब कोई इस प्रकार से इसके बारे में अन्वेषण करता है,
तो यह ’मैं’ गिरकर विलीन हो जाता है । यही ’आत्म-विचार’,
अर्थात् ’आत्मानुसन्धान है ॥19॥)


अहमि नाशभाज्यहमहंतया ।
          स्फुरति हृत्स्वयं परमपूर्णसत ॥20॥


(जब ’अहं’-वृत्ति का अवसान हो जाता है, तो एक अन्य स्फुरण ’अहं-’अहं’,
(’मैं’-’मैं’ के अर्थ में, किन्तु शब्दरहित, मौनरूपी) अनायास प्रकट हो उठता है,
यह ’अहं’-’अहं’, अहंकार नहीं बल्कि अपनी पूर्णता में उस परम वस्तु का ही
स्फुरित हो रहा स्व-उद्घोष होता है ॥20॥)


इदमहंपदाभिख्यमन्वहम् ।
             अहमिलीनकेऽप्यलयसत्तया ॥21॥


(यह, अहं-अहं (हृदय) ही ’अहं’ पद का तत्त्वार्थ है । क्योंकि जब ’मैं’ नहीं होता,
तब भी वह सत्ता यथावत् अखण्डित है । ’मैं’ के लय अथवा अवसान हो जाने
पर भी वह विद्यमान है । इसलिये इस बोध का जागृत होना और ’मैं’ का मिट
जाना एक ही घटना है ॥21॥)


(नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः ।
        उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥)

                                                                   (गीता, अ.२, श्लोक १६)

विग्रहेन्द्रिय प्राणधीतमः ।
       नाहमेकसत्तज्जडं ह्यसत् ॥22॥


(इन्द्रियों, प्राण, बुद्धि, ’अविद्या’(अहंकार) और इन सबका जोड़ (देह),
’मैं’ (अर्थात् ’आत्मा’) नहीं । क्योंकि ’मैं’, ’अहं’ (आत्मा) एकमात्र
’सत्’-स्वरूप और ’नित्य-सत्य’ वस्तु है, जबकि वे ’अनेक’(अनित्य)
और इसलिये मिथ्या, जड हैं ॥22॥)


सत्त्वभासिका चित्क्ववेतरा ।
          सत्तया हि चिच्चित्तया ह्यहम् ॥23॥


(उस ’बोध’ का जिसके माध्यम से ’सत्’ का भान् होता है, सत् से पृथक् अपना
स्वतंत्र अस्तित्त्व हो सकता है ? स्पष्ट है कि यह असंभव है । अतएव ’सत्’
स्वयं ही चित्स्वरूप है, और इस चित् के भान, बोधस्वरूप होने से ही ’अहं’ का
भान भी होता है ॥23॥)


( 'अहं’ अर्थात् ’सत्स्वरूप’ आत्म-तत्त्व । और फ़िर वही शुद्ध बोध
प्रत्येक देह-मन में इन्द्रिय और बुद्धि को चेतनता प्रदान करता है । और इसके उपरांत
ही मन-बुद्धि में आभासी - ’मैं’ का आगमन होता है ।
किन्तु इस सबके बाद भी ’सत्’ और ’चित्’ अपने प्रमाण स्वयं होते हैं, इस तथ्य को
अस्वीकार नहीं किया जा सकता, और यदि मनुष्य ’मैं कौन’ के अनुसंधान में संलग्न
हो जाता है, तो इस आभासी - ’मैं’ का भी निर्मूलन हो जाता है ।)


ईशजीवयोर्वेषधीभिदा ।
                सत्स्वरूपतो वस्तु केवलम् ॥24॥


(नाम, रूप एवं बुद्धि की ही दृष्टि से जीव और परमेश्वर के बीच अन्तर हुआ
करता है । जबकि हृदय के रूप में मूलतः वे एकमेव सद्‌वस्तु मात्र हैं, उनके
बीच के सारे भेद मनःकल्पित हैं ॥24॥)


वेषहानतः स्वात्मदर्शनं ।
       ईशदर्शनं स्वात्मरूपतः ॥25॥


(जब नाम-रूप आदि उपाधियों को त्याग दिया जाता है,
अर्थात् मनुष्य जब अपने स्वयं के बारे में किसी भी
धारणा विशेष से रहित होता है, तो उसे आत्म-साक्षात्कार
हो जाता है । यह साक्षात्कार ही ईश्वर का दर्शन भी है,
क्योंकि स्वरूपतः ईश्वर और आत्मा एकमेव हैं ॥25॥)


आत्मसंस्थितिः स्वात्मदर्शनं ।
       आत्मनिर्द्वयादात्मनिष्ठता ॥26॥


(चूँकि आत्मा द्वैतरहित है, अर्थात् आत्मा के अतिरिक्त
दूसरे किसी ’अहं’ का अस्तित्त्व है ही नहीं, इसलिये
’आत्मा में सम्यक् अवस्थिति होना’ तथा ’आत्मा के
दर्शन करना’ दो भिन्न-भिन्न बातें नहीं हैं ॥26॥)


ज्ञानवर्जिताऽज्ञानहीनचित् ।
       ज्ञानमस्ति किं ज्ञातुमन्तरं ॥27॥


(ज्ञान वह बोध मात्र है जो विद्या एवं अविद्या से विलक्षण है ।
उस बोध के उदय होने पर क्या (ज्ञाता ज्ञेय का) भेद शेष रहता है ?॥27॥)


किं स्वरूपमित्यात्मदर्शने ।
           अव्ययाऽभवापूर्ण चित्सुखम्॥28॥


(’मैं’ का वास्तविक तत्त्व (आशय) क्या है, इस विचारणा (खोज) के
द्वारा वह यथार्थ एक जागृत परम आनन्द के रूप में प्राप्त होता है ।
और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह तत्त्व शुद्ध बोधरूपी अव्यय,
अजन्मा, अमर, असीम और पूर्ण आनन्दमय है ॥28॥)


बन्धमुक्त्यतीतं परं सुखं ।
          विन्दतीह जीवस्तु दैविकः ॥29॥


(इस प्रकार जिसने आत्म-दर्शन कर लिया है, उसे अपनी दिव्य सत्ता
का भान हो जाने से वह जीते-जी, इस देह में रहते हुए भी, बन्धन
व मुक्ति से विलक्षण इस परम सुख में अवस्थित रहता है ॥29॥)


अहमपेतकं निजविभानकम् ।
       महदिदं तपो रमणवागियम् ॥30॥



(इस प्रकार से आभासी ’मैं’ (अहंकार) तथा वास्तविक ’मैं’ (आत्मा)
के अंतर को गवेषणापूर्वक खोजकर, निज-आत्मा का भान प्रदान
करनेवाले आत्म-बोध में सतत अवस्थित रहना महान् तप है, और
यही श्री रमण के वचन (उपदेश) हैं ॥30॥)



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पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात्पूर्णमुच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
नमो भगवते श्री रमणाय
श्री रमणार्पणमस्तु
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2 टिप्‍पणियां:

  1. (श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय - २, श्लोक - २४)

    आत्मा सर्वव्याप्त है अतः इसका छोटा से छोटा अंश भी निकाल नहीं सकते। निकाल कर रखने के लिए स्थान कहाँ है? और न ही कुछ जोड़ सकते हैं; क्या कहाँ जोड़ेंगे? आत्मा स्थिर अतः अचल है। आत्मा सम्पूर्ण है। अतः आत्मा के द्वारा किसी भी प्रकार की क्रिया का कोई कारण नहीं होने से क्रिया संभव नहीं है।जब क्रिया ही नहीं है तो कर्तापन कैसा ?! जब कर्तापन और क्रिया दोनों नहीं है तो क्रिया का फल कैसे संभव हो सकता है ? अतः सिद्ध होता है कि भगवान् की परा प्रकृति (आत्मा) निष्क्रिय किन्तु चेतन है। यह भगवान् की अपरा प्रकृति (मन,बुद्धि,अहंकार,पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और आकाश) का अधिष्ठान है। इसी की उपस्थिति में काया रूप ग्रहण करने में समर्थ है।

    तीनों गुणों (त्रिगुणात्मिका अव्यक्त प्रकृति) सत्व, रज और तम के मिश्रण का नाम योग है और यही माया है। भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं - माया ही सब कुछ कर रही है। कैसे ?? इन गुणों के प्रतिशत से व्यक्ति का स्वभाव निर्धारित होता है I इन तीनों गुणों का प्रतिशत सभी में अलग-अलग होता है Iइसीलिए हर व्यक्ति का स्वभाव मौलिक अर्थात अनूठा होता है और चाह कर भी नहीं बदलता है I गुणों के प्रतिशत का यह मेल पूर्व जन्म नहीं, पूर्व जन्मों के फलस्वरूप है।

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  2. भर्ता च रामो जनक: पिता च न स्वयं च साक्षात् सकलार्थ - सिद्धा । सुखं न तु प्राप्तवतीह सीता *बलीयसी केवलं ईश्वरः*
    *सीता के पति श्री राम और पिता जनक और खुद सभी बाबत में स्वयं सिद्ध, फिर भी इस लोक में उन्हें सुख मीला नहीं ! सच में ईश्वर इच्छा हि बलवान है।*

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