मंगलवार, 20 सितंबर 2011

अष्टावक्र गीता (चतुर्दश अध्याय)


॥ अष्टावक्र गीता ॥
चतुर्दश अध्याय

जनक उवाच - 
प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमादाद् भावभावनः।
निद्रितो बोधित इव क्षीणसंस्मरणो हि सः॥१४- १॥
(श्रीजनक कहते हैं - 
जो स्वभाव से ही विचारशून्य है और शायद ही कभी कोई इच्छा करता है वह पूर्व स्मृतियों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है जैसे कि नींद से जागा हुआ व्यक्ति अपने सपनों से॥१॥)
क्व धनानि क्व मित्राणि क्व मे विषयदस्यवः।
क्व शास्त्रं क्व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा॥१४- २॥
(जब मैं कोई इच्छा नहीं करता तब मुझे धन, मित्रों, विषयों, शास्त्रों और विज्ञान से क्या प्रयोजन है॥२॥)
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे।
नैराश्ये बंधमोक्षे च न चिंता मुक्तये मम॥१४- ३॥
(साक्षी पुरुष रूपी परमात्मा या ईश्वर को जानकर मैं बंधन और मोक्ष से निरपेक्ष हो गया हूँ और मुझे मोक्ष की चिंता भी नहीं है॥३॥)
अंतर्विकल्पशून्यस्य बहिः स्वच्छन्दचारिणः।
भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्तादृशा एव जानते॥१४- ४॥
(आतंरिक इच्छाओं से रहित, बाह्य रूप में चिंतारहित आचरण वाले, प्रायः मत्त पुरुष जैसे ही दिखने वाले प्रकाशित पुरुष अपने जैसे प्रकाशित पुरुषों द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं॥४॥)


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