शनिवार, 8 जनवरी 2011

॥ श्री शिवताण्डवस्तोत्रं ॥

॥ श्री शिवताण्डवस्तोत्रं ॥

जटाटवीगलज्जल.प्रवाहपावितस्थले गलेsवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव: शिवम् ॥१॥

(सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।)

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरी.विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम ॥२॥

(अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।)

धराधरेन्द्रनन्दनी विलासबन्धुबन्धुर- स्फुरदिगन्तसन्तति.प्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरिणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिदिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥


(पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।)

जटाभुजंगपिंगल.स्फुरत्फणामणिप्रभा- कदम्बकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥४॥

(जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।)

सहस्त्रलोचनप्रभृत्य.शेषलेखशेखर- प्रसून धूलिधोरिणी विधूसरांगघ्रिपीठभू:।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटक: श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ॥५॥


(इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।)

ललाटचत्वरज्वल.धनञ्जयस्फुलिंगभा- निपीतपञ्चसायकं नमन्नीलिम्पनायकं।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ॥६॥

(इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजी हमको अक्षय सम्पत्ति दें।)

करालभालपट्टिका.धगधगधगज्ज्वल- धनञ्जयाहुती कृतप्रचंडपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दनी कुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचने रतिर्मम ॥७॥

(जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।)

नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुर-त्कुहूनिशिथिनीतम:प्रबन्धबद्धकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरी धरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: ॥८॥


(नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।)

प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा- वलम्बीकंठ कन्दली रूचिप्रबद्धकन्धरम ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥९॥


(फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञ विध्वंसक, गजासुर हंता, अंधकारसुर नाशक और मृत्यु को नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।)

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमन्जरी- रस प्रवाह माधुरी विज्रुम्भणामधुव्रतम ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥१०॥


(कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।)

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रम भुजंगमश्वस- द्विनिर्गमत्क्रम स्फुरत्करालभालहव्यवाट ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनि मृदंगतुंगमंगल- ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डव: शिव: ॥११॥


(अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।)

दृषद्विचित्रतल्पयो भुजंगमौक्तिकस्त्रजो- र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयो: सुह्यद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम ॥१२॥


(कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं में समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।)

कदा निलिम्पनिर्झरी.निकुन्जकोटरे वसन विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमजलिं वहन ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नक: शिवेतिमन्त्रमुच्चरन कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥

(कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।)

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्मधूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं, परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥

(देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।)

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌॥१५॥


(प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।)

इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्त मोत्तमं स्तवं पठन स्मरन ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम ॥१६॥

(इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।)

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु: ॥१७॥


(शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।)

॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌ ॥



1 टिप्पणी:

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