|| अष्टावक्र गीता ||
त्रयोदश अध्याय
जनक उवाच -
अकिंचनभवं स्वास्थं कौपीनत्वेऽपि दुर्लभम् |
त्यागादाने विहायास्मादहमासे यथासुखम् ||१३- १||
(श्री जनक कहते हैं -
अकिंचन (कुछ अपना न) होने की सहजता केवल कौपीन पहनने पर भी मुश्किल से प्राप्त होती है, अतः त्याग और संग्रह की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥१॥)
कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते |
मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम् ||१३- २||
(शारीरिक दुःख भी कहाँ (अर्थात् नहीं) हैं, वाणी के दुःख भी कहाँ हैं, वहाँ मन भी कहाँ है, सभी प्रयत्नों को त्याग कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥२॥)
कृतं किमपि नैव स्याद् इति संचिन्त्य तत्त्वतः |
यदा यत्कर्तुमायाति तत् कृत्वासे यथासुखम् ||१३- ३||
(किये हुए किसी भी कार्य का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं है, ऐसा तत्त्वपूर्वक विचार करके जब जो भी कर्त्तव्य है उसको करते हुए सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥३॥)
कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्धभावा देहस्थयोगिनः |
संयोगायोगविरहादहमासे यथासुखम् ||१३- ४||
(शरीर भाव में स्थित योगियों के लिए कर्म और अकर्म रूपी बंधनकारी भाव होते हैं, पर संयोग और वियोग की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥४॥)
अर्थानर्थौ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा |
तिष्ठन् गच्छन् स्वपन् तस्मादहमासे यथासुखम् ||१३- ५||
(विश्राम, गति, शयन, बैठने, चलने और स्वप्न में वस्तुतः मेरे लाभ और हानि नहीं हैं, अतः सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥५॥)
स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न वा |
नाशोल्लासौ विहायास्मदहमासे यथासुखम् ||१३- ६||
(सोने में मेरी हानि नहीं है और उद्योग अथवा अनुद्योग में मेरा लाभ नहीं है अतः हर्ष और शोक की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥६॥)
सुखादिरूपा नियमं भावेष्वालोक्य भूरिशः |
शुभाशुभे विहायास्मादहमासे यथासुखम् ||१३- ७||
(सुख, दुःख आदि स्थितियों के क्रम से आने के नियम पर बार बार विचार करके, शुभ (अच्छे) और अशुभ (बुरे) की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥७॥)
bahut-bahut dhanyawad,gagar me sagar bharane wali baat hai.nivadan hai shash adhyay bhi uplabadh ho jaye to sab ko labh haga pranam
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