मंगलवार, 23 अगस्त 2011

अष्टावक्र गीता (द्वादश अध्याय)


|| अष्टावक्र गीता ||
द्वादश अध्याय


जनक उवाच -
कायकृत्यासहः पूर्वं ततो वाग्विस्तरासहः।
अथ चिन्तासहस्तस्माद् एवमेवाहमास्थितः॥१२- १॥

(श्री जनक कहते हैं - पहले मैं शारीरिक कर्मों से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ, फिर वाणी से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ। अब चिंता से निरपेक्ष (उदासीन) होकर अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥१॥)

प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यत्वेन चात्मनः।
विक्षेपैकाग्रहृदय एवमेवाहमास्थितः॥१२- २॥

(शब्द आदि विषयों में आसक्ति रहित होकर और आत्मा के दृष्टि का विषय न होने के कारण मैं निश्चल और एकाग्र ह्रदय से अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥२॥ )

समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये।
एवं विलोक्य नियमं एवमेवाहमास्थितः॥१२- ३॥

(अध्यास (असत्य ज्ञान) आदि असामान्य स्थितियों और समाधि को एक नियम के समान देखते हुए मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥३॥)

हेयोपादेयविरहाद् एवं हर्षविषादयोः।
अभावादद्य हे ब्रह्मन्न् एवमेवाहमास्थितः॥१२- ४॥

(हे ब्रह्म को जानने वाले ! त्याज्य (छोड़ने योग्य) और संग्रहणीय से दूर होकर और सुख-दुःख के अभाव में मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥४॥)

आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृतवर्जनं।
विकल्पं मम वीक्ष्यैतैरेवमेवाहमास्थितः॥१२- ५॥

(आश्रम - अनाश्रम, ध्यान और मन द्वारा स्वीकृत और निषिद्ध नियमों को देख कर मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥५॥)

कर्मानुष्ठानमज्ञानाद् यथैवोपरमस्तथा।
बुध्वा सम्यगिदं तत्त्वं एवमेवाहमास्थितः॥१२- ६॥

(कर्मों के अनुष्ठान रूपी अज्ञान से निवृत्त होकर और तत्त्व को सम्यक रूप से जान कर मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥६॥)

अचिंत्यं चिंत्यमानोऽपि चिन्तारूपं भजत्यसौ।
त्यक्त्वा तद्भावनं तस्माद् एवमेवाहमास्थितः॥१२- ७॥

(अचिन्त्य के सम्बन्ध में विचार करते हुए भी विचार पर ही चिंतन किया जाता है। अतः उस विचार का भी परित्याग करके मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥७॥)

एवमेव कृतं येन स कृतार्थो भवेदसौ।
एवमेव स्वभावो यः स कृतार्थो भवेदसौ॥१२- ८॥

(जो इस प्रकार से आचरण करता है वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है; जिसका इस प्रकार का स्वभाव है वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है॥८॥)

सोमवार, 15 अगस्त 2011

अष्टावक्र गीता (एकादश अध्याय)


॥ अष्टावक्र गीता ॥
एकादश अध्याय


अष्टावक्र उवाच -
भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी |
निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति ||११- १||

(श्री अष्टावक्र जी कहते हैं - भाव (सृष्टि, स्थिति) और अभाव (प्रलय, मृत्यु) रूपी विकार स्वाभाविक हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकाररहित, दुखरहित होकर सुख पूर्वक शांति को प्राप्त हो जाता है॥१॥)

ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी |
अन्तर्गलितसर्वाशः शान्तः क्वापि न सज्जते ||११- २||

(ईश्वर सबका सृष्टा है कोई अन्य नहीं ऐसा निश्चित रूप से जानने वाले की सभी आन्तरिक इच्छाओं का नाश हो जाता है। वह शांत पुरुष सर्वत्र आसक्ति रहित हो जाता है॥२॥ )

आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी |
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति ||११- ३||

(संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है। वह न इच्छा करता है और न शोक ॥३॥)

सुखदुःखे जन्ममृत्यू दैवादेवेति निश्चयी |
साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते ||११- ४||

(सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, फल की इच्छा न रखने वाला, सरलता से कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता है॥४॥)

चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी |
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः ||११- ५||

(चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है॥५॥)

नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी |
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम् ||११- ६||

(न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है॥६॥)

आब्रह्मस्तंबपर्यन्तं अहमेवेति निश्चयी |
निर्विकल्पः शुचिः शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृतः ||११- ७||

(तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प (कामना) रहित, पवित्र, शांत और प्राप्त-अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है॥७॥)

नाश्चर्यमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी |
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति ||११- ८||

(अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है। वह अपार शांति को प्राप्त करता है॥८॥)



अष्टावक्र गीता (दशम अध्याय)


|| अष्टावक्र गीता || 
दशम अध्याय
अष्टावक्र उवाच -
विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम् |
धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रादरं कुरु ||१०- १||

(श्री अष्टावक्र कहते हैं - कामना और अनर्थों के समूह धन रूपी शत्रुओं को त्याग दो, इन दोनों के त्याग रूपी धर्म से युक्त होकर सर्वत्र विरक्त (उदासीन) हो जाओ॥१॥)

स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा |
मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसंपदः ||१०- २||

(मित्र, जमीन, कोषागार, पत्नी और अन्य संपत्तियों को स्वप्न की माया के समान तीन या पाँच दिनों में नष्ट होने वाला देखो॥२॥)

यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै |
प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव ||१०- ३||

(जहाँ जहाँ आसक्ति हो उसको ही संसार जानो, इस प्रकार परिपक्व वैराग्य के आश्रय में तृष्णारहित होकर सुखी हो जाओ॥३॥)

तृष्णामात्रात्मको बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते |
भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः ||१०- ४||

(तृष्णा (कामना) मात्र ही स्वयं का बंधन है, उसके नाश को  मोक्ष कहा जाता है। संसार में अनासक्ति से ही निरंतर आनंद की प्राप्ति होती है॥४॥)

त्वमेकश्चेतनः शुद्धो जडं विश्वमसत्तथा |
अविद्यापि न किंचित्सा का बुभुत्सा तथापि ते ||१०- ५||

(तुम एक (अद्वितीय), चेतन और शुद्ध हो तथा यह विश्व अचेतन और असत्य है। तुममें अज्ञान का लेश मात्र भी नहीं है और जानने की इच्छा भी नहीं है॥५॥)

राज्यं सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च |
संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि ||१०- ६||

(पूर्व जन्मों में बहुत बार तुम्हारे राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर और सुखों का, तुम्हारी आसक्ति होने पर भी नाश हो चुका है॥६॥)

अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा |
एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून् मनः ||१०- ७||

(पर्याप्त धन, इच्छाओं और शुभ कर्मों द्वारा भी इस संसार रूपी माया से मन को शांति नहीं मिली॥७॥)

कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा |
दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम् ||१०- ८||

(कितने जन्मों में शरीर, मन और वाणी से दुःख के कारण कर्मों को तुमने नहीं किया? अब उनसे उपरत (विरक्त) हो जाओ॥८॥)  

शनिवार, 6 अगस्त 2011

अष्टावक्र गीता (नवम अध्याय)

|| अष्टावक्र गीता ||
नवम अध्याय

अष्टावक्र उवाच
कृताकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा |
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद् भव त्यागपरोऽव्रती ||९- १||

(श्री अष्टावक्र कहते हैं - यह कार्य करने योग्य है अथवा न करने योग्य और ऐसे ही अन्य द्वंद्व (हाँ या न रूपी संशय) कब और किसके शांत हुए हैं। ऐसा विचार करके विरक्त (उदासीन) हो जाओ, त्यागवान बनो, ऐसे किसी नियम का पालन न करने वाले बनो॥१॥)

कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात् |
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमः गताः ||९- २||

(हे पुत्र! इस संसार की (व्यर्थ) चेष्टा को देख कर किसी धन्य पुरुष की ही जीने की इच्छा, भोगों के उपभोग की इच्छा और भोजन की इच्छा शांत हो पाती है॥२॥)

अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रयदूषितम् |
असरं निन्दितं हेयमिति निश्चित्य शाम्यति ||९- ३||

(यह सब अनित्य है, तीन प्रकार के कष्टों (दैहिक, दैविक और भौतिक) से घिरा है, सारहीन है, निंदनीय है, त्याग करने योग्य है, ऐसा निश्चित करके ही शांति प्राप्त होती है॥३॥)

कोऽसौ कालो वयः किं वा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणाम् |
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात् ||९- ४||

(ऐसा कौन सा समय अथवा उम्र है जब मनुष्य के संशय नहीं रहे हैं, अतः संशयों की उपेक्षा करके अनायास सिद्धि को प्राप्त करो॥४॥)

ना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा |
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः ||९- ५||

(महर्षियों, साधुओं और योगियों के विभिन्न मतों को देखकर कौन मनुष्य वैराग्यवान होकर शांत नहीं हो जायेगा॥५॥)

कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः |
निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृतेः ||९- ६||

(चैतन्य का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करके कौन वैराग्य और समता से युक्त कौन गुरु जन्म और मृत्यु के बंधन से तार नहीं देगा॥६॥)

पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथार्थतः |
तत्क्षणाद् बन्धनिर्मुक्तः स्वरूपस्थो भविष्यसि ||९- ७||

(तत्त्वों के विकार को वास्तव में उनकी मात्रा के परिवर्तन के रूप में देखो, ऐसा देखते ही उसी क्षण तुम बंधन से मुक्त होकर अपने स्वरुप में स्थित हो जाओगे॥७॥)

वासना एव संसार इति सर्वा विमुंच ताः |
तत्त्यागो वासनात्यागात्स्थितिरद्य यथा तथा ||९- ८||

(इच्छा ही संसार है, ऐसा जानकर सबका त्याग कर दो, उस त्याग से इच्छाओं का त्याग हो जायेगा और तुम्हारी यथारूप अपने स्वरुप में स्थिति हो जाएगी॥८॥)

सोमवार, 1 अगस्त 2011

अष्टावक्र गीता (अष्टम अध्याय)

|| अष्टावक्र गीता ||
अष्टम अध्याय

अष्टावक्र उवाच
तदा बन्धो यदा चित्तं किन्चिद् वांछति शोचति |
किंचिन् मुंचति गृण्हाति किंचिद् दृष्यति कुप्यति ||८- १||

(श्री अष्टावक्र कहते हैं - तब बंधन है जब मन इच्छा करता है, शोक करता है, कुछ त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, कभी प्रसन्न होता है या कभी क्रोधित होता है॥१॥)

तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति |
न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति ||८- २||

(तब मुक्ति है जब मन इच्छा नहीं करता है, शोक नहीं करता है, त्याग नहीं करता है, ग्रहण नहीं करता है, प्रसन्न नहीं होता है या क्रोधित नहीं होता है॥२॥)

तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं काश्वपि दृष्टिषु |
तदा मोक्षो यदा चित्तमसक्तं सर्वदृष्टिषु ||८- ३||

(तब बंधन है जब मन किसी भी दृश्यमान वस्तु में आसक्त है, तब मुक्ति है जब मन किसी भी दृश्यमान वस्तु में आसक्तिरहित है ॥३॥)

यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा |
मत्वेति हेलया किंचिन्मा गृहाण विमुंच मा ||८- ४||

(जब तक 'मैं' या 'मेरा' का भाव है तब तक बंधन है, जब 'मैं' या 'मेरा' का भाव नहीं है तब मुक्ति है। यह जानकर न कुछ त्याग करो और न कुछ ग्रहण ही करो ॥४॥)

अष्टावक्र गीता (सप्तम अध्याय)

अष्टावक्र गीता
सप्तम अध्याय

जनक उवाच -
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्ततः |
भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता ||७- १||

(राजा जनक कहते हैं - मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी जहाज अपनी अन्तः वायु से इधर - उधर घूमता है पर इससे मुझमें विक्षोभ नहीं होता है॥१॥)

मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः |
उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः ||७- २||

(मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी लहरें माया से स्वयं ही उदित और अस्त होती रहती हैं, इससे मुझमें वृद्धि या क्षति नहीं होती है॥२॥)

मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम विकल्पना |
अतिशांतो निराकार एतदेवाहमास्थितः ||७- ३||

(मुझ अनंत महासागर में विश्व एक अवास्तविकता (स्वप्न) है, मैं अति शांत और निराकार रूप से स्थित हूँ॥३॥)

नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरंजने |
इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त एतदेवाहमास्तितः ||७- ४||

(उस अनंत और निरंजन अवस्था में न 'मैं' का भाव है और न कोई अन्य भाव ही, इस प्रकार असक्त, बिना किसी इच्छा के और शांत रूप से मैं स्थित हूँ॥४॥)

अहो चिन्मात्रमेवाहं इन्द्रजालोपमं जगत् |
इति मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ||७- ५||

(आश्चर्य है मैं शुद्ध चैतन्य हूँ और यह जगत असत्य जादू के समान है, इस प्रकार मुझमें कहाँ और कैसे अच्छे (उपयोगी) और बुरे (अनुपयोगी) की कल्पना आ जाती है॥५॥)